(Excerpts for booklet “सिरि भूवलय शोध : दशा एवं दिशा” by Dr. Anupam Jain & Er. Anil Kumar Jain, published by KundKund Gyanpeeth – October 2017, Indore, INDIA).
सिरि भूवलय एवं मुनि कुमुदेन्दु का परिचय
मुनि कुमुदेन्दु गुरु विरचित सर्व भाषामयी अंकाक्षर भाषा काव्य “सिरि भूवलय” एक अद्भुत एवं संपूर्ण विश्व में अद्वितीय
रचना है। पूर्ण ग्रन्थ केवल अंकों में ही रचा गया है । ग्रन्थ के एक पृष्ठ को ‘चक्र’ कहा गया है । 27 अंक प्रति पंक्ति में रख
कर, 27 पंक्तियों को समायोजित करके 27×27 अंकों की एक मैट्रिक्स को एक चक्र कहते हैं । इस प्रकार एक चक्र
में 27×27 = 729 कुल अंक समायोजित होते हैं । किसी भी चक्र में सिर्फ 1 से लेकर 64 तक के अंकों को ही प्रयुक्त
किया जा सकता है। सिरि भूवलय के 59 अध्यायों में कुल 1270 चक्र उपलब्ध हैं । अनुमान है कि इन चक्रों में 6 लाख
श्लोक समाहित हैं ।
सिरि भूवलय की संपूर्ण कृति को 9 खण्डों में विभाजित किया गया है और खण्डों में से प्रत्येक को अध्यायों में विभाजित
किया गया है। प्रत्येक अध्याय को कई संबंधित चक्रों के साथ गठित किया गया है। मुनि कुमुदेंदु द्वारा इन खण्डों को दिए
नाम क्रम से इस प्रकार हैं :
- मंगल प्राभृत
- श्रुतावतार
- सूत्रावतार
- प्राणवाय पूर्व
- धवल
- जय धवल
- विजय धवल
- महा धवल
- अतिशयधवल
इस ग्रन्थ की कोरी कागज पर हस्तलिखित एक प्रति अगले हजार साल के लिए बेंगलुरु के निकट दोड्डबेले ग्राम निवासी
शतावधानी श्री धरणेंद्र पंडित के परिवार में सुरक्षित बच गई और बाद में पंडित श्री येलप्पा शास्त्री द्वारा महान प्रयासों से
इसे प्रकाश में लाया गया ।
श्री येलप्पा शास्त्री एक आयुर्वेदिक पंडित थे और श्री धरणेन्द्र पंडित से इस ग्रन्थ की सामग्री को जानने के लिए बहुत उत्सुक
थे लेकिन ऐसा करने की अनुमति नहीं थी। इस ग्रन्थ को प्राप्त करने के अपने प्रयासों में येलप्पा शास्त्री ने श्री
धरणेन्द्र पंडित की भतीजी से विवाह किया और आखिरकार वे श्री धरणेन्द्र पंडित के निधन के बाद उनके पुत्रों से अपनी
पत्नी श्रीमती ज्वालामालिनी के स्वर्ण आभूषणों के बदले प्राप्त करने में सफल हुए। एक अन्य विवरण के अनुसार पंडित
येल्लप्पा शास्त्री के बेंगलुरु में निवास के दौरान प्लेग की महामारी फैली तो वे बेंगलुरु से दोड्डबेले ग्राम में स्थानांतरित हो
गए। वहीँ वे श्री धरणेन्द्र पंडित परिवार के संपर्क में आये और इस परिवार में विवाहोपरांत इस ग्रन्थ को प्राप्त करने में
सफल हुए। इस विषय में और अन्य प्रामाणिक सूचना प्राप्त होने पर उसे ग्रहण किया जाये।
येलप्पा शास्त्री ने तीस सालों तक ग्रन्थ की संरचना के रहस्यों को सुलझाने का प्रयास किया । अंत में सन् 1950 में एक दिन
उनके समर्पण और कड़ी मेहनत का फल प्राप्त हुआ । वे सिरि भूवलय के चक्रों से काव्य अनिबद्ध करने की प्रक्रिया
समझ चुके थे। तीन साल बाद यानी सन् 1953 में सह–संपादकों कर्ल मंगलम श्रीकंठैय्या ( इतिहासविज्ञ एवं स्वतंत्रता
सेनानी, जो सन् 1935 से शास्त्री के साथ सिरि भूवलय पर काम कर रहे थे ) और अनंत सुब्बाराव ( कन्नड़ टाइपराइटर के
आविष्कारक ) के साथ सिरि भूवलय ग्रन्थ पर पहली पुस्तक कन्नड़ी भाषा में सर्वार्थ सिद्धि संघ द्वारा प्रकाशित हुई ।
येलप्पा शास्त्री ने अपने पहले खंड के निष्कर्षों का संकलन किया और सन् 1955 में दो वर्ष बाद दूसरी पुस्तक कन्नड़ी
भाषा में सर्वार्थ सिद्धि संघ द्वारा प्रकाशित की गई। इन दोनों पुस्तकों में सिरि भूवलय के मंगल प्राभृत खंड के प्रथम 33
अध्यायों को अनिबद्ध किया गया है और उन पर विस्तृत व्याख्या भी कन्नड़ भाषियों के लिए प्रस्तुत की गई है।
श्री येल्लप्पा शास्त्री ने सन् 1956 में , राष्ट्रीय अभिलेखागार, नई दिल्ली, में सिरि भूवलय के उपलब्ध चक्रों व अन्य
सम्बंधित जानकारियों की माइक्रोफिल्म तैयार कर ग्रन्थ को संरक्षित करने का महान कार्य संपन्न किया । इसी माइक्रो
फ़िल्म में पंडित येल्लप्पा शास्त्री ने अध्याय-34 से लेकर अंतिम अध्याय-59 को कन्नड़ी लिपि में अनिबद्ध (डिकोड)
करके संरक्षित कर दिया था ।
अप्रैल सन् 1957 में येलप्पा शास्त्री नई दिल्ली आये जहां आचार्य देशभूषण ने इस शास्त्र पर हिंदी टीका तैयार करने के
लिए उनके साथ काम किया। लेकिन दुर्भाग्य से येलप्पा शास्त्री ने 23 अक्तूबर, 1957 को अपना शरीर त्याग कर दिया ।
तब तक केवल चौदह अध्याय तैयार हो सके थे , जिन्हें बाद में श्री भूवलय प्रकाशन समिति ( जैन मित्र मंडल ), धर्मपुरा
दिल्ली द्वारा प्रकाशित किया गया।
येलप्पा शास्त्री के बेटे, एम वाई धर्मपाल ने अपने पिता के मिशन को आगे बढ़ाने के अपने सर्वोत्तम प्रयास किये। उन्होंने
कुमुदेन्दु मुनि के साहित्य परिचय के लिए ‘सिरि भूवलय – ओंडू परिचिय ‘ नामक एक कन्नड़ पुस्तिका प्रकाशित की।
धर्मपाल की बुकलेट के अलावा बंगलौर स्थित प्रकाशक ‘पुस्तक शक्ति‘ ने कुमुदेन्दु मुनि के मूल रचना के एक अंश को
दो संस्करणों को प्रकाशित किया है। पहली पुस्तक सन् 2003 में प्रकाशित हुई और दूसरी सन् 2007 में। कन्नड़ साहित्य
के इस गौरव को अधिक विद्वानों तक ले जाने के लिए पहली पुस्तक का एक हिंदी अनुवाद भी प्रकाशित किया गया है।
श्री नरेंद्र जैन (IDJO) द्वारा सिरि भूवलय के उपलब्ध चक्रों को कंप्यूटर आधारित तकनीक से देवनागरी लिपि में अनिबद्ध
करने का महत्वपूर्ण कार्य किया गया है।
सिरि भूवलय में चक्रों का संक्षिप्त परिचय :
चक्र : 27 अंक प्रति पंक्ति में रख कर, 27 पंक्तियों को समायोजित करके 27×27 अंकों की एक मैट्रिक्स को एक चक्र
कहते हैं । इस प्रकार एक चक्र में 27×27 अंक = 729 कुल अंक समायोजित होते हैं । किसी भी चक्र में सिर्फ 1 से
लेकर 64 तक के अंकों को ही प्रयुक्त किया जा सकता है । सिरि भूवलय के 59 अध्यायों में कुल 1270 चक्र उपलब्ध हैं ।
चित्र संख्या -1 में सिरि भूवलय के श्रुतावतार खंड के प्रथम चक्र को दर्शाया गया है । इस चित्र में चक्र को नौ टुकड़ों
(सब-मेट्रिक) में विभाजित दर्शाया गया है।
चित्र संख्या – 1 : सिरि भूवलय के श्रुतावतार खंड का प्रथम चक्र
बंध : किसी एक चक्र में समाहित रचना को अनिबद्ध करने की प्रक्रिया के क्रम को बंध कहा जाता है, इसे साधारण शब्दों
में चक्र के ताले को खोलने की कुंजी कह सकते हैं । बन्ध से प्राप्त अंक श्रंखला के प्रत्येक अंक के बदले उसके ध्वन्याक्षर
को रख कर ध्वन्याक्षर श्रंखला प्राप्त होती है – इसी के संयोजन से किसी एक भाषा में रचना उद्घाटित होती है । अनिबद्ध
करने की प्रक्रिया अर्थात बंधों के अनेकों प्रकारों विभिन्न नामों से जाना जाता है । उदाहरण स्वरुप बंधों के नाम हैं चक्र-
बंध, नवमांक-बंध, श्रेणी-बंध, विमलांक-बंध, हंस-बंध, सारस-बंध, मयूर-बंध आदि आदि । बंधों की संख्या एवं उनके प्रयोग
के विषय में कुछ शोधार्थिओं के विभिन्न मत हैं। चक्रों से मूल कन्नड़ी भाषा को अनिबद्ध करने में प्रयुक्त बंधों में मुख्यतः श्रेणी
बंध, चक्र बंध, एवं नवमांक बंध के विभिन्न संयोगों का प्रयोग हुआ है। अन्यान्य बंधों के प्रयोग में विस्तृत शोध की
आवश्यकता है।
ध्वन्याक्षर सारणी : अंक को ध्वन्याक्षर में परिवर्तित करने के लिए चित्र संख्या – 2 में दर्शायी सारणी का प्रयोग किया
जाता है । सिरि भूवलय के समस्त चक्रों के अंकों को ध्वन्याक्षरों में परिवर्तित करने के लिए इसी सारणी का प्रयोग किया
जाता है। इसी सारणी का प्रयोग इस प्रकल्प में ध्वन्याक्षरों को अंको में परिवर्तित करने हेतु भी किया गया है।
चित्र संख्या – 2: सिरि भूवलय में अंक को ध्वन्याक्षर में परिवर्तित करने के लिए सारणी
यहाँ यह दृष्टव्य है कि प्रत्येक के अंक के संगत प्राप्त होने वाले अक्षरों को संयोजित करने पर मूलतः कानड़ी भाषा की
संरचना मिलती है। पुनः विशेष रीति से संयोजन करने पर प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश आदि भाषायें प्राप्त होती हैं।
मंगल प्राभृत के अध्यायों में चक्रों की संख्या
Chakra Count in Adhyayas of Mangal Prabhrut
Adhyaya No. | No. of Chakras | Decoded Pages | Adhyaya No. | No. of Chakras | Decoded Pages | Adhyaya No. | No. of Chakras | Decoded Pages |
1 | 9 | – | 21 | 18 | – | 41 | 24 | 6 |
2 | 10 | – | 22 | 20 | – | 42 | 24 | 6 |
3 | 10 | – | 23 | 23 | – | 43 | 25 | 6 |
4 | 10 | – | 24 | 25 | – | 44 | 26 | 6 |
5 | 11 | – | 25 | 22 | – | 45 | 34 | 9 |
6 | 12 | – | 26 | 21 | – | 46 | 27 | 7 |
7 | 11 | – | 27 | 22 | – | 47 | 27 | 7 |
8 | 12 | – | 28 | 21 | – | 48 | 26 | 7 |
9 | 12 | – | 29 | 24 | – | 49 | 27 | 6 |
10 | 12 | – | 30 | 29 | – | 50 | 31 | 8 |
11 | 11 | – | 31 | 22 | – | 51 | 25 | 7 |
12 | 15 | – | 32 | 23 | – | 52 | 26 | 6 |
13 | 13 | – | 33 | 23 | – | 53 | 26 | 6 |
14 | 14 | – | 34 | 23 | 9 | 54 | 26 | 7 |
15 | 14 | – | 35 | 32 | 9 | 55 | 35 | 9 |
16 | 15 | – | 36 | 23 | 16 | 56 | 27 | 5 |
17 | 15 | – | 37 | 23 | 8 | 57 | 27 | 8 |
18 | 13 | – | 38 | 24 | 7 | 58 | 36 | 7 |
19 | 13 | – | 39 | 23 | 6 | 59 | 40 | 9 |
20 | 19 | – | 40 | 32 | 10 |
सिरि भूवलय के 9 खंडों में से प्रथम खंड मंगल प्राभृत है। वस्तुतः इसके 9 खण्डों में से केवल प्रथम पर ही अब तक कार्य
हुआ है। अध्याय 1 – 33 तक डिकोड होकर प्रकाशित भी हो चुके हैं। श्री येलप्पा शास्त्री जी ने सन् 1956 में
अध्याय-34 से लेकर अंतिम अध्याय-59 को कन्नड़ी लिपि में अनिबद्ध (डिकोड) करके राष्ट्रीय अभिलेखागार, नई
दिल्ली, द्वारा संरक्षित माइक्रोफिल्म में सुरक्षित कर दिया है। उपरोक्त सारणी में अध्यायों से सम्बद्ध चक्रों की संख्या श्री
येलप्पा शास्त्री के विवरणानुसार लिखी हैं इसके अनुसार कुल चक्रों की संख्या 1263 है ना कि 1270 जैसा कि अन्यान्य
संदर्भों में उल्लेखित है। श्री नरेंद्र जैन (IDJO) द्वारा भी चक्रों की संख्या 1263 ही वर्णित है। इस अंतर के बारे में शोध की
आवश्यकता है। अन्य कुछ लोग चक्रों की संख्या के बारे में और कुछ मत रखते हैं जिनको प्रामाणिक मानने के पर्याप्त
आधार उपलब्ध नहीं हैं।
मुनि कुमुदेन्दु : परिचय
अद्वितीय एवं महान प्रतिभाधारी मुनि कुमुदेंदु ने ‘सिरि भूवलय’ के रूप में बहुविध
बहुभाषायी ज्ञानकोष काव्य की रचना की है।
अंकाक्षरों की जटिलता एवं काव्य को अनिबद्ध करने के लिए विभिन्न प्रकार के बंधों की दुरूहता ने इस महान रचना
को न केवल आम लोगों से दूर किया नहीं बल्कि बाद के विद्वानों और आचार्यों को भी यह ग्राह्य नहीं हो पाया ।
अतः मुनि कुमुदेंदु एवं ‘सिरि भूवलय’ के सन्दर्भ अन्यान्य आचार्यों के ग्रंथों में अनुपस्थित होने से मुनि कुमुदेंदु का काल
स्पष्ट नहीं है।
पिरिया पट्टन के देवप्पा ने मुनि कुमुदेंदु और ‘सिरी भूवलय’ की महिमा को अपनी मधुर कन्नड़ कविता में “कुमुदेंदु शतक”
वर्णित किया है।
ऐसा अनुमान है कि लगभग एक हजार साल पहले मुनि कुमुदेंदु का कर्नाटक के कोलार जिले में नंदी पर्वत के पास येलव
ल्ली नामक गांव में प्रवास था। वे राष्ट्रकूट वंश के राजा नृपतुंग अमोघवर्ष के समकालीन थे।
वे गंग नरेश शिवार्थ के गुरु थे।
इस अवधि के दौरान महान विद्वानों, गणितज्ञों, व्याकरणकर्ताओं और शिल्पकारों को बड़ी संख्या में राज्याश्रय प्राप्त था।
इसका मुनि कुमुदेंदु की बहुपक्षीय प्रतिभा को और भी प्रदीप्त होने का अवसर मिला, ऐसा प्रतीत होता है।
षट्खण्डागम की आचार्य वीरसेन द्वारा की गई धवला टीका के पूर्ण होने ( 816 ई के 44 वर्ष) बाद सिरि भूवलय का
प्रणयन किया गया। फलतः इसका काल 860 ई. के लगभग आता है।
सिरि भूवलय ग्रन्थ के भाषिक एवं छांदिक लक्षणों के आधार पर कतिपय विद्वान मुनि कुमुदेन्दु का काल 12 से 15 सदी
का अनुमानित करते हैं।
राजा अमोघवर्ष नृपतुंग के सेना के एक अधिकारी की पत्नीमलिकाब्बे ने इस अनूठी महाकाव्य की कुछ प्रतियां तैयार कर
वाईं और समकालीन जैन आचार्यों के बीच इन्हें वितरित किया गया, जिनमें आचार्य माघनन्दी भी शामिल हैं ।
मुनि कुमुदेंदु ने अपनी बहुविध प्रतिभा और प्रज्वलित प्रज्ञा से एक अद्भुत और अद्वितीय
कृति की रचना में अनूठे प्रयोग बहुलतासे किये।
उन्होंने 6 लाख श्लोकों की अकल्पनीय संख्या को लिखने के लिए अक्षरों के स्थान पर अंकों का इस्तेमाल किया।
उन्होंने गहन गणितीय आधार से अंकाक्षरों में अदृश्य हुए पाठ को अनिबद्ध करने के लिए जटिल बंधों की संरचना की ।
मूल कन्नड़ काव्य में अंतर्गर्भित बहु भाषाओं के काव्यों को संकलित करना एक अनोखा और अद्धभुत प्रयोग इस कृ
ति सर्वभाषामयी काव्य का विशेषण प्रदान करता है ।
प्रथम खंड मंगल प्राभृत के बाद के आठ खण्डों को क्रम से पूर्ववर्ती खंडों से व्युत्पन्न कर पाना, मुनि कुमुदेंदु के
चमत्कारिक प्रयोग अकल्पनीय पक्ष है।
कन्नड़ के अतिरिक्त जिन भाषाओं में चक्रों में प्रकट कविताएं और छंद शामिल हैं उनमें प्राकृत, संस्कृत, तेलुगू, तमिल,
अपभ्रंश और पाली आदि कुल 718 भाषाएँ एवं उपभाषाएँ हैं ।
विषय वस्तु में जैन दर्शन सिद्धांत, वैदिक मान्यताएं , आयुर्वेद, ज्योतिष, गणित आदि आदि अनेकों समाहित किये गए हैं।
मुनि कुमुदेंदु की रचनात्मक प्रतिभा और सन्निहित ज्ञानकोष के मूल्यांकन के लिए विशिष्ट प्रयासों की आवश्यकता है।
गुरु परम्परा
मुनि कुमुदेंदु ने ‘सिरि भूवलय’ को भगवान गोम्मटेश्वर को समर्पित किया है और मुनि पुष्पदन्त और भूतबली द्वारा रचित ‘
षट्खण्डागम’ नामक एक महान ग्रंथ से प्रेरणा ली है।
उन्होंने अपने गुरु के रूप में श्री वीरसेन आचार्य के प्रति गहन सम्मान प्रदर्शित किया है ।
आचार्य वीरसेन ज्योतिष, व्याकरण, तर्कशास्त्र, गणित और छंद शास्त्र में अत्यन्त कुशल थे। उन्होंने जैन सिद्धांत ग्रन्थ
‘षट्खण्डागम’ पर टीका ग्रन्थ ‘धवला’ की रचना की है।
मुनि कुमुदेंदु सेन गण / नंदी संघ की परम्परा में दिगंबर जैन संत थे ।निम्न उद्धृत श्लोक में पिरियापट्टन के देवप्पा ने
“कुमुदेन्दु शतक” में मुनि कुमुदेन्दु की कुंदकुंद-आम्नाय में दिगंबर जैन साधु परम्परा का विवरण प्रस्तुत किया है।
श्री देशीगण पालितो बुध्नुतः श्री नंदीसंघेश्वरः ।
श्री तर्कागमवारीधी मर्म गुरु श्री कुंदकुंदान्वयः ।।
श्री भूमंडल राजपूजित लसच्छिृ पादपद्मद्वयो।
जियात सो कुमुदेंदु पंडित मुनिः श्रीवक्र गच्छाधीपः ।।
भावार्थ : देशी गण, नंदी संघ, कुन्दकुन्दान्वय वक्र गच्छ के पंडित कुमुदेन्दु मुनि राजपूजित हैं।
मुनि कुमुदेन्दु ने सिरि भूवलय के प्रथम खंड के प्रथम अध्याय का आरम्भ अष्टम तीर्थंकर को नमस्कार करते हुए
किया है (मंगलाचरण)। जिनदेव की महिमा का वर्णन करने के पश्चात कवि ने दिगम्बर साधु परमेष्ठी के स्वरुप का
परिचय देते हुए स्वयं की भूवलय की रचना की पात्रता स्थापित की है।
यल गल दिक्कगल हत्तनुबट्टेय । नलविनिम् धरि सिरद मुनियु।।
सलुव दिगम्बर नेन्तेनद केळवू। बलिदनक् काव्य भूवलय।।
(सिरि भूवलय मंगलप्राभृत प्रथम अध्याय श्लोक संख्या 10)
भावार्थ : जिस तरह दिगम्बर जैन मुनि संपूर्ण वस्त्र आदि परिग्रह से रहित अर्थात निरावरण आकाश के सामान रहते हैं।
एकमात्र शरीर ही उनका परिग्रह है और वे दशों दिशाओं को वस्त्र रूप धारण किये रहते हैं। ऐसे मुनिओं द्वारा अनादि
काल से वर्णित यह काव्य भूवलय है।
“सिरि भूवलय” : वेब-साईट परियोजना
मुनि कुमुदेन्दु गुरु विरचित सर्व भाषामयी अंकाक्षर भाषा काव्य “सिरि भूवलय” एक अद्भुत एवं संपूर्ण विश्व में अद्वितीय रचना है। अंकाक्षर भाषा की जटिलता के कारण यह ग्रन्थ पिछले करीब एक हज़ार वर्षों से विलुप्त प्राय रहा। करीब साठ वर्ष पूर्व इस ग्रन्थ की एकमात्र उपलब्ध प्रति को पंडित येल्लप्पा शाष्त्री ने अनथक प्रयत्नों से बूझने में सफलता प्राप्त की एवं अन्य विद्वानों के सहयोग इसे प्रचारित भी किया। मूल रूप से इस ग्रन्थ को कन्नड़ भाषा की कृति कहने में आता है। परंतु माना जाता है कि इस में 718 भाषाओँ की रचनाएँ समाहित हैं – जिन्हें 18 मूल भाषाएँ हैं तथा 700 उप-भाषाएँ हैं।
प्रारंभिक बहुमूल्य प्रयत्नों के पश्चात अभी भी इस ग्रन्थ में समाहित विशाल ज्ञान भंडार को प्रकट करना बाकी है. इसके लिए कंप्यूटर एवं भाषाविदों का सामूहिक प्रयत्न आवश्यक है .
इस वेब-साईट (www.siri-bhoovalaya.org ) का उद्देश्य इस ग्रन्थ के चक्रों और बंधों को उद्घाटित करने सम्बंधित शोध या इसमें निहित ज्ञान से साधारण जिज्ञासु, शोधार्थी एवं विद्वान सुधीजनों को अवगत कराना है . इस वेब-साईट से एक बहु-विध उपयोगी एवं विश्वव्यापी मंच प्राप्त हो सकेगा, जिसके माध्यम से जानकारी और शोध सामग्री का आदान प्रदान सुविधा जनक तरीके से त्वरित गति से हो सकेगा |
आपसे आग्रहपूर्वक अनुरोध है कि इस विस्मयकारी धरोहर का परिचय ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुँच सके इसके लिए अपना बहुमूल्य योगदान देने अथवा इस परियोजना में शामिल होने का प्रयत्न अवश्य करें। अगर आप शोधार्थी हैं और अपने शोध को इस माध्यम से प्रकाशित करना चाहते हैं तो आपका स्वागत है। अगर आप भाषाविद हैं तो इस ग्रन्थ में विभिन्न भाषाओँ में निहित ज्ञान को प्रकट करने में अपनी सामर्थ्य का प्रयोग करें ।
सिरि भूवलय में प्रयुक्त पारिभाषिक शब्दों का संक्षिप्त परिचय :
चक्र : २७ अंक प्रति पंक्ति में रख कर, २७ पंक्तियों को समायोजित करके २७x२७ अंकों की एक मैट्रिक्स को एक चक्र कहते हैं । इस प्रकार एक चक्र में २७x२७ अंक = ७२९ कुल अंक समायोजित होते हैं । किसी भी चक्र में सिर्फ १ से लेकर ६४ तक के अंकों को ही प्रयुक्त किया जा सकता है । सिरि भूवलय के ५६ अध्यायों में कुल १२७० चक्र उपलब्ध हैं । अनुमान है कि इन चक्रों में ६ लाख श्लोक समाहित हैं । निम्न चित्र में सिरि भूवलय के प्रथम चक्र को दर्शाया गया है ।
बंध : किसी एक चक्र में समाहित रचना को अनिबद्ध करने की प्रक्रिया के क्रम को बंध कहा जाता है, इसे साधारण शब्दों में चक्र के ताले को खोलने की कुंजी कह सकते हैं । बन्ध से प्राप्त अंक श्रंखला के प्रत्येक अंक के बदले उसके ध्वन्याक्षर को रख कर ध्वन्याक्षर श्रंखला प्राप्त होती है – इसी के संयोजन से किसी एक भाषा में रचना उद्घाटित होती है । अनिबद्ध करने की प्रक्रिया के अनेकों प्रकारों विभिन्न नामों से जाना जाता है । उदाहरण स्वरुप बंधों के नाम हैं चक्र-बंध, नवमांक-बंध, श्रेणी-बंध, विमलांक-बंध, हंस-बंध, सारस-बंध, मयूर-बंध आदि आदि ।
ध्वन्याक्षर सारणी : अंक को ध्वन्याक्षर में परिवर्तित करने के लिए निम्न सारणी का प्रयोग किया जाता है ।
चक्र-बंध : चक्र-बंध की प्रक्रिया में एक चक्र के समस्त ७२९ अंकों को निम्न दर्शाये गये क्रम से अनिबद्ध किया जाता है । बंध का आरम्भ जिस कोष्ठिका में अंक १ है, वहां से लेकर क्रम को बढ़ाते हुये जिस कोष्ठिका में अंक ७२९ है वहां समाप्त होता है । प्रत्येक कोष्ठिका के अंकों को क्रम से सारणी के अनुसार ध्वन्याक्षर में परिवर्तित किया जाता है. । तत्पश्चात इन ध्वन्याक्षरों को शब्दों में और शब्दों को छंदों में संयोजित करके रचना उद्घाटित होती है । निम्न चित्र में चक्र-बंध में प्रयुक्त कोष्ठिकाओं का क्रम उनमें लिखे अंकों के अनुसार होता है ।
निम्न चित्र में ऊपर दर्शाये गए सिरि भूवलय के प्रथम चक्र चक्र पर चक्र-बंध के प्रयोग से प्राप्त ध्वन्याक्षरों की श्रंखला प्रदर्शित की गयी है । इसके लिए कंप्यूटर प्रोग्राम की सहायता ली गई है ।
ऊपर के चित्र में चक्र-बंध द्वारा प्रकट किये गए ध्वन्याक्षरों को शब्दों एवं शब्दों को छंदों में संयोजित करके निम्न काव्य प्राप्त होता है ।
अष्ट महाप्रातिहार्य वयभवदिन्द । अष्ट गुणन्गलौल औम्दम । स्रष्टिगे मंगल पर्याय दिनित | अष्टम जिनगेरगुवेनु टवणेय कौलु पुस्तक पिन्छ पात्रेय । अवत्रदा क…